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लत अख़बार की

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? आपने कई तरह की लत के बारे में सुना है पर क्या अख़बार पढ़ने की लत के बारे में कभी सुना है                                                                   मीडिया का सबसे सशक्त हथियार आज भी अख़बार हैं. ये कागज पर शब्दों से बने वाक्यों को लिख कर या छाप कर तैयार किया जाता है. इसकी बढ़ती लोकप्रियता के पीछे उसकी पैकेजिंग नहीं है, बल्कि पाठकों की रूचि हैं. आज जहाँ इलेक्ट्रौनिक व वेब मीडिया का बोलबाला है, वही ये सस्ता व छोटा माध्यम इन सबसे आगे है. जाहिर है कि हर व्यक्ति अपने आस - पड़ोस की ख़बर को ज्यादा अहमियत देगा न  की दूर - दराज देशों में  घट रही सूचनाओं को. जहाँ तक आंकड़े गलत नहीं हैं तो ज्यादातर लोगों की रूचि अपने आस - पास क्या हो रहा है और क्या होने वाला है, ये जानने में होती है, जो कि न्यूज चैनल व वेब पोर्टल नहीं दे सकते हैं लेकिन इसमें आपको पन्ने पलटते ही अपने आस - पड़ोस, देश - विदेश, खेलकूद, सिनेमा, विज्ञापन और ढ़ेर सारी  ख़बरें देखने और जानने को मिलेगी. हम सबने अपने घरों व आस - पास एक आदत तो जरूर नोटिस की होगी, सुबह की चाय और अख़बार. जिस दिन टाइम पर हॉकर  

पहचान

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पहचान  क हते हैं जिन्दगी जब सिखाती  हैं तो अच्छा ही सीखती है .........पर उनका क्या जो हर दिन जिन्दगी से लड़ के जीते हैं . सीखना तो दूर की बात हो गई यहाँ तो कई लोग मरने के लिए भी जंग लड़ते हैं . हर दिन , हर लम्हा और हर पल सिर्फ और सिर्फ हम में से कई का ये सोचते हुए बीत जाता हैं की क्या करे  और क्या न करे ? घर वालो की सुने या दोस्तों की , रिश्तेदारों की सुने या चाहने वालो की । इन सबकी आवाजो में खुद की आवाज़ सुनाई  ही नहीं देती की हम क्या चाहते  हैं अपने बारे में। कभी चुप रहे तो दुनिया वालो ने समझा कमज़ोर हैं हम , जब हँसे तो कहा बेशर्म हैं हम . जब इश्वेर के बनाये गये इंसान से प्यार किया तो कहा पागल हैं हम और जब उसी से नफरत की तो कहा बेदर्द हैं हम ,जीवन की हर कसौटी ने  हमे परखा पर कभी समझा नहीं शायद यही वजह हैं जो आज तक हम अपने को समझ ही नहीं पाए हैं की आखिर क्या हैं हम  ? असफलताओ से थक  हार कर जब हमने सोचा  बस अब और नहीं ..अब नहीं बढ़ सकता अब मैं और नहीं चल सकता , कब तक और रोऊंगा और कब तक छुपाऊ अपनी कमजोरी को किस से  बताऊ की  मुझे बस एक मौका चाहिए अपने को साबित करने का पर मुझे दुत

क्या करू ?

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*********************************                                               कोई तो बताये मुझे मै क्या करू ? ********************************* रम जाऊ इन लड़कपन के दिनों में या , बचपन के सुनहरे पल याद करू ? ******************** चेहरे पे नकली हंसी सजाऊ या , वो मासूम खिलखिलाहट याद करू ? ********************************* कोई तो बताये मुझे मै क्या करू ? ********************************* मान लू मै दुनिया के हर फैसले या, उन पर बेबाक सवाल करू ? ******************* रिश्ते निभाऊ या, रिश्ते निभाने वालो  से प्यार करू ? ********************************* कोई तो बताये मुझे मै क्या करू ? ********************************* बातो की बात बनाऊ या, खुल के इज़हार करू ? ***************** किसी की तरह बनने की चाहत करू या, अपनी चाहतो का मुकाम बनाऊ ? ********************************* कोई तो बताये मुझे मै क्या करू ? ********************************* दुसरो की ख़ुशी के लिए उनकी सुनू .. या, अपनी ख़ुशी के लिए अपनी  सुनू ? *********************** ज

मेरी डायरी की शायरी

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मेरी डायरी की शायरी   ( मेरी डायरी में से पेश हैं कुछ  शायरी की  झलकिया .......) 1 . कोई कहता है कैसी अनसुलझी किताब हु मैं ..... और ...! कोई पढ़ लेता हैं यूँ जैसे  कोई खुली किताब हु मैं ... 2 . "भरती हूँ उन तमाम रंगों को रोजाना तेरे दामन में .... ए जिन्दगी ............ न जाने किस रंग की तलाश में तू , उदास है अब तक ....." 3 . "ये कैसी कश्मोकश है तेरे मेरे दरमिया.......... इकरार भी ...है इनकार भी ....है फिर कहते हो कभी की...... हमे तुमसे प्यार भी है ।" 4 . " हाय ये तेरी नजरो का पैनापन इतनी गहराई समाई है इनमे की अब तो तैरने से भी डर लगता है ....." 5 . "जाने किस बात की सज़ा दी उन्होंने हमे ............. पहले कुछ न कह कर भी रुलाते रहे ....... और आज ...... इतना कुछ कह कर भी रुला दिया ....." 6 . "हमने...उन्हें , कभी लोगो से बचाया , कभी जमाने से छुपाया ... कमबख्त ..... दीदार इतना जिद्दी था उनका , की हमारी ही नजरो से न बच पाया ........" 7 . "डरते थे हम.....जिस अंजाम के डर
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माँ का ख़त- (मदर्स डे पर विशेष )                                                        कैसे मैं तुम्हे पढ़ा दूँ ........ माँ का खत है ये मेरे दोस्तों  कैसे मैं तुम्हे पढ़ा दूँ ! इस आइने में जो तस्वीर है  कैसे मैं तुम्हे दिखा दूँ !........... अपनी तस्वीर को आँखों से  तो सभी लगाते  है   बनी मेरी तकदीर जिस तस्वीर से  वो सूरत तुम्हे कैसे दिखा दूँ !....... कैसे दिखा दूँ ...? बिना काजर की वो आँखे  जो खुलते ही सवेरा .. झपकते ही शाम  कर देती है............... न जाने कितनी तलब हैं  हमारी आहट की उसको  जिसे देखते ही वो सुकून  की साँस भर  लेती है  .... कई बार रो-रो कर हमने, उसके आँचल को भिगोया  पर न जाने उसने किस अंदाज़ से  हर बार अपने आंसुओ को हमसे छुपाया  इन अनमोल आंसुओं के मोल को  इस खत में कैसे बता दूँ !....... ऐ  दोस्त अब तू ही बता  ये खत मैं तुम्हे कैसे पढ़ा दूँ !..... अपनी चाहत को न देखा न उसने  हमारी  हर चाहत के आगे  बस हमारे चेहरों पे  खिली हंसी से ... ख़ुशी मिलती थी उसको........... हिम्मत तो न थी वो  बोल सक

बचपन के खेल : कुछ इस तरह याद आये

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"आज बचपन के खेल कुछ इस तरह याद आये , जब टूटे हुए खिलौने कबाड़ो में नज़र आये "                                                                हाय ......................... वो बचपन के दिन भी क्या दिन थे , चाहत चाँद को पाने की करते थे और दोपहर से  शाम तक  कभी बुलबुल कभी तितली को पकड़ा करते . न दिन का  होश न शाम की खबर न  ही सुध - बुध कपड़ो की और न ही अपनी .  कभी मिट्टी पे हम तो कभी मिट्टी हमारे चेहरों को छूती ,कभी हाथो पे  तो कभी कपड़ो पे याद है न कैसे लग जाया करती थी . सुबह की वो प्यारी मीठी नींद से जब हमे जबरदस्ती जगाया जाता .. वो भी स्कूल जाने के लिए. कितना गुस्सा आता था न  .......थक - हार  के स्कूल से आते  पर तुरंत ही खेलने के लिए तैयार भी हो जाते . वो बचपन के सारे खेल हमे कितना कुछ सिखाते थे , कभी आपस में लड़ाते तो कभी साथ मिलके मुस्कुराते . अपनी बचकानी हरकतों से हम दुसरो को कितना सताते थे न . वो .....बहती नाक , खिसकती निक्कर तो याद ही होगी ...जब हम दोस्तों से कहते " अले लुतो तो अम भी थेलने आ लए है " आइये फिर डूबते हैं इन कुछ बचपन के खेलो और शरारत भरी