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तू जिंदगी को जी, उसे समझने की कोशिश न कर ईश्वर ने जब इंसान की रचना की तो उसे किसी बंधनों में नहीं बांधा और न ही उसे हर चीज की आजादी दी। उसे जिससे अच्छा अनुभव हुआ, उसने उसे सही मान लिया और जिससे कड़वा उसे गलत। इसी अनुसार इंसान ने अपनी जरूरतें पहचानी और उसे पाने के लिए एक सीमा तय की जिसमें रह कर वह अपना जीवनयापन करने लगा। लेकिन आज के समय में इंसान ठीक वैसा ही प्राणी बन गया जैसा कि वो आदिकाल में धरती पर आया था। न ही उसे सही की पहचान है और न ही गलत की, शायद इसलिए की उसने अपनी कोई सीमा ही नहीं तय की। आज वो जिंदगी जीने के लिए नहीं जी रहा है, बल्कि वक्त काटने के लिए जी रहा है। शायद मेरी इन बातों से बहुत लोग सहमत न हो पर सच्चाई तो यही है। शांत मन से सोचिए जरा ! क्या हम वाकई अपनी खुशी के लिए जी रहें हैं ? क्या हम वो सब कुछ कर पाते हैं जो हमें अच्छा लगता है? जवाब बाहर से तो हां होगा लेकिन मन कहेगा, " नहीं कर पाते हैं।'' पता है, ये सारे मसले हमारे बनाए हुए हैं क्योंकि हम जैसे हैं वैसे नहीं दिखना चाहते। जैसे दूसरे हमें देखना चाहते हैं वैसा बनने की कोशिश में हम भटकते रहते

काहे की शर्म.. बिंदास बोलें हिंदी

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ठ हरिए..... ये लेख शायद अंग्रेजी बोलने के शौकीन लोगों की भावना को ठेस पहुँचा सकता है। कृपया इसे दिल पर न लें... लेकिन दिमाग पर जरुर लें। क्योंकि ऐसे ही लोगों की वजह से कई बेकसूरों को नीचा समझा जाता है...अरे आपको पता नहीं है जनाब! आजकल तो लोगों की औकात भी अंग्रेजी बोलने के बाद ही मापी जाती है... यह तो एकदम शहद मे लिपटा हुआ कड़वा सच है कि अपने ही देश में अपनी ही मातृभाषा से हर रोज लोगों को समझौता करना पड़ता है .... वैसे भी हिन्दी का दर्द तो सिर्फ एक ही दिन नजर आता है... वो है हिन्दी दिवस के दिन.. दिल पर पत्थर रखकर लोगों को इस दिन हिन्दी को सम्मान देना पड़ता है... ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है थोड़ा आस-पास ही नजर घूमाईए और देखिए किस तरह लोग जूझ रहे हैं अंग्रेजी बोलेने की होड़ में। कोई अंग्रेजी बोलना चाहता है पर जब बोलता है तो हंसीका पात्र बन जाता है... हम जैसे लोग ही उन पर ठहाके मारते हैं.. कोई मोहतरमा सिर्फ अंग्रेजी बोलकर अपने आप को विद्वान बताना चाहती हैं और दूसरों को गवार...। ऐसे कई नमूने आप को मिल जांएगे जो बिना किसी जानकारी के अंग्रेजी बोलते नजर आ जाएंगे..लेकिन हिन्दी की

आखिर किसके हैं बजरंग बलि ?

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ब ड़े दिनों बाद एक ऐसी फिल्म पर्दे पर आई है जिसने दो देशों की ही नहीं बल्कि दो अलग-अलग धर्मों के बीच की दूरियां भी कम की है। जी हां मैं  “ बजरंगी भाईजान ”  फिल्म की ही बात कर रही हूँ। लेकिन एक सवाल वो दर्शकों के मन में जरूर पैदा कर गई है.. कि ये बजरंग बलि जी है किसके  ?  हिन्दूओं के या मुसलमान लोगों के। ये बात अब बहस का मुद्दा बनती जा रही है। सच्चाई तो ये है कि इन दोनों को ही इसका जवाब पता है लेकिन डर और अहम के बीच बस ये बयां नहीं कर पाते। और जो बयां करते हैं बेचारे वह फंस जाते हैं। ऐसा ही कुछ हुआ लकी के साथ... फिल्म खत्म होने के बाद जब लकी सिनेमा हॉल से बाहर निकल रहा था तो कुछ लोग बजरंगी बलि जी   का धर्म डिसाइड करने में लगे हुए थे। यही कुछ 12 से 13 लोग थे। कुछ पढ़े-लिखे लड़के, लड़कियां और कुछ बुर्जुग थे। बड़ी दुविधा में थे बेचारे। लकी ने सोचा चलो भाई इस चर्चा का हिस्सा ही बन लिया जाए। और ये भी पता कर लिया जाए कि बजरंग बलि जी आखिर है किसके ? चर्चा का मुद्दा भी गरम था और महौल भी। ऐसा लग रहा था मानो संसद चल रही हो। पक्ष-विपक्ष दोनों ही फुल जोश में थे। इसी बीच किसी महान

काश!

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(कुछ दूर जो चलते तुम, कुछ और समझ पाता कुछ देर ठहरते तुम तो कुछ और भी कह पाता) यही सोचकर कि आज नहीं कल, पर कब  तुमसे अपने दिल की बात कह पाता। पल दिन बन गए और दिन महीने कई साल तो यों ही बीत गए। पर बात दिल की जुबां पर न ला पाया कमबख्त इस इश्क ने  न जाने कौन सा ताला लगाया। पर अब बात इजहार की नहीं एहसास की है गर वो समझ गए हमारे जज्बातों को  तो समझूँगा  इस इंतजार का मैंने वाकई मीठा फल पाया।⁠⁠⁠⁠ - अर्चना चतुर्वेदी

बस एक रात की बात

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स पने देखना किसे अच्छा नहीं लगता  ?  लेकिन उन्हें पूरा करना हर किसी के बस की बात नहीं होती। पर कोशिश हर कोई करता है। बस इसके लिए कोई सही राह चुनता है तो कोई  गलत रास्ते पर चल देता है। लेकिन मंजिल किसे मिलनी ही ये उनका संघर्ष ही बताता है। ऐसे ही दो सपने पल रहे थे गाजियाबाद शहर में। प्रवीण और रश्मी, अब तक दोनों एक दूसरे से अन्जान काम की तलाश में भटक रहे थे। प्रवीण एक पढ़े-लिखे परिवार से था। मां सरकारी स्कूल में टीचर थी और पिता जी बैंक कर्मचारी। परिवार में सिर्फ तीन ही प्राणी थे। प्रवीण का सपना था कि वो एक फाइव स्टार होटल का मैनेजर बन जाए और फिर धीरे-धीरे वो एक खुद का एक होटल खोल ले। बस इसी ख्वाहिश को संजोए वो दिन-रात नौकरी तलाशने में लगा हुआ था। वहां दूसरी तरफ रश्मी भी कई दफ्तरों के चक्कर काट चुकी थी। लेकिन कहीं भी उसे आशा किरण न दिखी। रश्मी थी तो बनारस की लेकिन गाजियाबाद में अपनी दीदी और जीजा जी के साथ रहती थी। वह ट्रेफिक पुलिस इंस्पेक्टर थे। शादी को 10 साल हो गए थे। लेकिन अब तक कोई औलाद न थी। जिसकी वजह से वह आए दिन नशा करते और देर रात घर आया करते। रश्मी को अब यह सब अजीब

लैपटॉप या लॉलीपॉप ....

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लैपटॉप ले लो....... टैबलेट ले लो ......... वो भी बिल्कुल  मुफ़्त हैं ऐसा ऑफर दुबारा नहीं मिलेगा तो आओ और ले जाओ वो भी  वारंटी  कार्ड के साथ. क्या लगता हैं आपको की ये किसी दुकानदार की कोई नई योजना हैं जनाब आप गलत फहमी में हैं ये हमारी उ. प सरकार  की नई योजना हैं जो एक तरफ ''ऊंट के मुंह में जीरा " का काम कर रहा हैं तो दूसरी तरफ "आग में घी का काम ". ये योजना भले ही विद्यार्थी कल्याण के लिए बनाई गई हो पर फायदा तो सरकार  का ही हो रहा हैं एक तीर से दो निशाने लगा रही हैं. ये जनता में प्रसाद भी बाँट रहे हैं और साथ ही प्रचार भी. यानि की जब आप ये लैपटॉप या टैब खोलेगे तो आपको इनकी सरकार के दर्शन करने ही पड़ेगे फिर वो चाहे वालपपेर , स्टीकर हो या फिर इनका बैग सभी पे रहेगा इनका नाम.पता नहीं इसमें कल्याण  किसका हैं सरकार का या फिर विद्यार्थीयो का ?  इसे आप आगे निकलने की होड़ कहे या फिर लुभाने का छलावा. शिक्षा दिन पर दिन अपने भाव बढाती जा रही हैं कई लोग वो नहीं पढ़ पा रहे  हैं जिसमे  उनकी रूचि हैं क्योकि उन विषयों की फीस इतनी जयदा  हैं, कही कही तो लोगो को उनकी जरूरत तक