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स पने देखना किसे अच्छा नहीं लगता ? लेकिन उन्हें पूरा करना हर किसी के बस की बात नहीं होती। पर कोशिश हर कोई करता है। बस इसके लिए कोई सही राह चुनता है तो कोई गलत रास्ते पर चल देता है। लेकिन मंजिल किसे मिलनी ही ये उनका संघर्ष ही बताता है। ऐसे ही दो सपने पल रहे थे गाजियाबाद शहर में। प्रवीण और रश्मी, अब तक दोनों एक दूसरे से अन्जान काम की तलाश में भटक रहे थे। प्रवीण एक पढ़े-लिखे परिवार से था। मां सरकारी स्कूल में टीचर थी और पिता जी बैंक कर्मचारी। परिवार में सिर्फ तीन ही प्राणी थे। प्रवीण का सपना था कि वो एक फाइव स्टार होटल का मैनेजर बन जाए और फिर धीरे-धीरे वो एक खुद का एक होटल खोल ले। बस इसी ख्वाहिश को संजोए वो दिन-रात नौकरी तलाशने में लगा हुआ था। वहां दूसरी तरफ रश्मी भी कई दफ्तरों के चक्कर काट चुकी थी। लेकिन कहीं भी उसे आशा किरण न दिखी। रश्मी थी तो बनारस की लेकिन गाजियाबाद में अपनी दीदी और जीजा जी के साथ रहती थी। वह ट्रेफिक पुलिस इंस्पेक्टर थे। शादी को 10 साल हो गए थे। लेकिन अब तक कोई औलाद न थी। जिसकी वजह से वह आए दिन नशा करते और देर रात घर आया करते। रश्मी को...
ठ हरिए..... ये लेख शायद अंग्रेजी बोलने के शौकीन लोगों की भावना को ठेस पहुँचा सकता है। कृपया इसे दिल पर न लें... लेकिन दिमाग पर जरुर लें। क्योंकि ऐसे ही लोगों की वजह से कई बेकसूरों को नीचा समझा जाता है...अरे आपको पता नहीं है जनाब! आजकल तो लोगों की औकात भी अंग्रेजी बोलने के बाद ही मापी जाती है... यह तो एकदम शहद मे लिपटा हुआ कड़वा सच है कि अपने ही देश में अपनी ही मातृभाषा से हर रोज लोगों को समझौता करना पड़ता है .... वैसे भी हिन्दी का दर्द तो सिर्फ एक ही दिन नजर आता है... वो है हिन्दी दिवस के दिन.. दिल पर पत्थर रखकर लोगों को इस दिन हिन्दी को सम्मान देना पड़ता है... ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है थोड़ा आस-पास ही नजर घूमाईए और देखिए किस तरह लोग जूझ रहे हैं अंग्रेजी बोलेने की होड़ में। कोई अंग्रेजी बोलना चाहता है पर जब बोलता है तो हंसीका पात्र बन जाता है... हम जैसे लोग ही उन पर ठहाके मारते हैं.. कोई मोहतरमा सिर्फ अंग्रेजी बोलकर अपने आप को विद्वान बताना चाहती हैं और दूसरों को गवार...। ऐसे कई नमूने आप को मिल जांएगे जो बिना किसी जानकारी के अंग्रेजी बोलते नजर आ जाएंगे..लेकिन हिन्दी की...
तू जिंदगी को जी, उसे समझने की कोशिश न कर ईश्वर ने जब इंसान की रचना की तो उसे किसी बंधनों में नहीं बांधा और न ही उसे हर चीज की आजादी दी। उसे जिससे अच्छा अनुभव हुआ, उसने उसे सही मान लिया और जिससे कड़वा उसे गलत। इसी अनुसार इंसान ने अपनी जरूरतें पहचानी और उसे पाने के लिए एक सीमा तय की जिसमें रह कर वह अपना जीवनयापन करने लगा। लेकिन आज के समय में इंसान ठीक वैसा ही प्राणी बन गया जैसा कि वो आदिकाल में धरती पर आया था। न ही उसे सही की पहचान है और न ही गलत की, शायद इसलिए की उसने अपनी कोई सीमा ही नहीं तय की। आज वो जिंदगी जीने के लिए नहीं जी रहा है, बल्कि वक्त काटने के लिए जी रहा है। शायद मेरी इन बातों से बहुत लोग सहमत न हो पर सच्चाई तो यही है। शांत मन से सोचिए जरा ! क्या हम वाकई अपनी खुशी के लिए जी रहें हैं ? क्या हम वो सब कुछ कर पाते हैं जो हमें अच्छा लगता है? जवाब बाहर से तो हां होगा लेकिन मन कहेगा, " नहीं कर पाते हैं।'' पता है, ये सारे मसले हमारे बनाए हुए हैं क्योंकि हम जैसे हैं वैसे नहीं दिखना चाहते। जैसे दूसरे हमें देखना चाहते हैं वैसा बनने की कोशिश में हम भटकते रहते...
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