बचपन के खेल : कुछ इस तरह याद आये

"आज बचपन के खेल कुछ इस तरह याद आये ,
जब टूटे हुए खिलौने कबाड़ो में नज़र आये " 
                                                              हाय ......................... वो बचपन के दिन भी क्या दिन थे , चाहत चाँद को पाने की करते थे और दोपहर से  शाम तक  कभी बुलबुल कभी तितली को पकड़ा करते . न दिन का  होश न शाम की खबर न  ही सुध - बुध कपड़ो की और न ही अपनी .  कभी मिट्टी पे हम तो कभी मिट्टी हमारे चेहरों को छूती ,कभी हाथो पे  तो कभी कपड़ो पे याद है न कैसे लग जाया करती थी . सुबह की वो प्यारी मीठी नींद से जब हमे जबरदस्ती जगाया जाता .. वो भी स्कूल जाने के लिए. कितना गुस्सा आता था न  .......थक - हार  के स्कूल से आते  पर तुरंत ही खेलने के लिए तैयार भी हो जाते . वो बचपन के सारे खेल हमे कितना कुछ सिखाते थे , कभी आपस में लड़ाते तो कभी साथ मिलके मुस्कुराते . अपनी बचकानी हरकतों से हम दुसरो को कितना सताते थे न . वो .....बहती नाक , खिसकती निक्कर तो याद ही होगी ...जब हम दोस्तों से कहते " अले लुतो तो अम भी थेलने आ लए है "आइये फिर डूबते हैं इन कुछ बचपन के खेलो और शरारत भरी यादो में ............................

आज वक्त के इस आइने में हमारे कल की तस्वीर चाहे कितनी ही पुरानी हो गई हो पर जब भी सामने आती है ढेर सारी यादे ताज़ा हो जाती हैं और वो भी यादे अगर बचपन की हो तो और ही मज़ा आता है .......जैसे -"अक्कड़ -बक्कड़  बम्बे बो, अस्सी नब्बे पुरे सौ , सौ में लगा धागा, चोर निकल के भागा" ये लाइने तो याद ही होगी और "पौसम्म पा भाई पौसम्म पा"  इन शब्दों के बिना हमारे सारे खेल अधूरे हुआ करते थे . स्कूल से चौंक चुरा - चुरा कर लाई जाती थी याद है किसलिए ? अरे हा! हा! खाने के इलावा ................नहीं याद आया अरे!!!!! "सिक्कड़ी" बनाने के लिए , खासतौर लडकिय बड़ी माहिर होती थी इस खेल में . और "पहाड़ - पानी " याद है ? नहीं.........? मेरा कहने का मतलब "बर्फ - पानी" अब याद आया .............और कितना दौड़ा करते थे और कदम थे की एक जगह कभी रुकते ही नहीं थे . "छुपन - छुपाई..ई ..ई..ई..ई " ,आइस -पाईस बोलने में कितना मजा आता था .

 उस टाइम हमे कितना उधमी कहा जाता था वो साहसी वाला नहीं ..........जी! "उधम " (शोरशराबा / हलचल ) मचाने वाला . पर हमको इस बात की कहा फ़िक्र रहती थी आखिर मनमौजी जो थे . अपने पसंद के रंग की कितनी पंतगे उड़ाई है  हमने , न पंतगो के कटने का सिलसिला रुकता था और न ही हमारे नई पतंगो के उड़ने का . हार नहीं मानते थे जब तक एक पतंग काट न ले शायद  उस समय ये पतंग का खेल हमे बताने की कोशिश करता था की उम्मीद की डोर भले ही कट जाए पर कभी हार मत मानना .फिर पता नहीं आज हम छोटी - छोटी असफलताओ को अपनी हार क्यों मान लेते हैं ? शायद ....समझ की कमी से ......पर समझ तो सही मायने में हमे बचपन में ही नहीं थी फिर भी हर खतरों के खेल से मुस्कुराते हुए खेल जाते थे . क्रिकेट खेलना हो तो तैयारी एक दिन पहले से ही शुरू हो जाती, जिसका बैट होता पहली बारी भी उसी की होती और जब बेमतलब के चौके - छक्के लगते न.... कहने का मतलब जब हमारी गेंद पड़ोसियों के घरो में चली जाती और हम " प्लीज़ आंटी ..........आखिरी बार अब नहीं जाएगी गेंद आपके घर में प्लीज़ आंटी " हमारा मासूम चेहरा देख हमे वापस कर दी जाती.

कितनी बार अपने सपनो का घर बनाते तो कभी गुड्डे - गुडियों की शादी करते ,कभी लडकियों की चोटी खींचते और उन्हें परेशान करते उस पर पापा की वो डांटे और वो गलती पर मम्मी को मनाना होता था , कभी बारिश में कागज़ की नाव बहाए तो कभी राह चलते पानी में बेमतलब पैर छप-छपाए .जब याद करते है उन पालो को तो किशोर कुमार का वो गीत याद आता है -"कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन " पर सच कहूँ तो मुश्किल ही लगता है उन दिनों का लौट पाना ...."काश ! कही बैंक होता अपने बचपन का तो....... वो पुरानी यादे वो लम्हे निकाल लाते "

 बचपन में न जाने कैसे - कैसे खेल खेला करते थे और अब समय की व्यस्थता के चलते जिन्दगी हमारे साथ बड़े अजीब -अजीब खेल खेलती है कल तक गुड्डे - गुडियों को हम अपने इशारो पे नाचते थे और आज जिन्दगी हमे .जब हम "उच-नीच" का खेल खेलते थे तब हमे किसी ने बताया नहीं था की ये है क्या हैं? अपने हिसाब से हमने आपने मानक तय कर लिए थे और आज इस के मायने ही बदल गये है अब न ही गलियों में वो शोर सुनाई देता है और न ही पार्को में बच्चे . अब न ही आगनों में सिकड़ी बनी होती है और न ही गिल्ली डंडे के खेल का शोर ......क्योकि अब इन्हें हम में से किसी समझदार ने status simble में बांध दिया है अब कहा जाता है की ये सब खेल शरीफ घर के बच्चे नहीं खेला करते जादातर तो अब बच्चे घर में कैद हो जाते है या तो टी.वी के सामने , विडियो गेम में या कंप्यूटर और या फिर इन्टरनेट पे ....उनकी मासूमियत किसी और ने नहीं हमने ही छीनी है जिसकी वजह से हमारे ये बचपन के खेल अब जल्द ही  सिर्फ कुछ इतिहासों के पन्ने बन जायेगे ...सच कहूँ तो आज का बचपन कही खोता हुआ नज़र आ रहा है समय से पहले ही  बच्चे बड़े हो जाते है एक तरह से तो अच्छा है की उनका विकास हो रहा है पर शायद  वो अपने जीवन के उन सुनहरे पलो को नहीं  जी पा रहे है जो अपने और हमने जिए है इसी वजह से वो अकेलेपन का शिकार हो रहे है .....स्कूल के बैग का बोझ दिन पर दिन बढता जा रहा है और बच्चे धीरे - धीरे दबते जा रहे है . जरूरत है हमे उन्हें हकीकत की दुनिया से रूबरू करने की .जिससे वो अपने आज को खुल के जी सके और आने वाले कल में ये कह सके की .........
"बचपन का भी क्या ज़माना था 
हँसता मुस्कुराता  खुशियो का खज़ाना था 
खबर न थी सुबह की न शाम का ठिकाना था 
दादा  दादी की कहानी थी परियो का फ़साना था 
गम की कोई जुबान न थी सिर्फ हसने का बहाना था, अब रही न वो जिन्दगी जैसे बचपन का जमाना था "     
 






Comments

  1. बचपन शायद सबका हसीन होता है...............

    वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी......................

    जिंदा रखिये अपना बचपन....
    अनु

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  2. IN CHILDHOOD...
    Main Apni Marzi Ka Be-Taaj Badshah Tha...........

    AFTER....
    Aur Ab Main Apne-Aap Ka Ghulaam Bhi Nahi :(

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  3. bohat acha likha hai tumne well done:)i really like it

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  4. म श्री एडम्स केविन, Aiico बीमा ऋण ऋण कम्पनी को एक प्रतिनिधि हुँ तपाईं व्यापार को लागि व्यक्तिगत ऋण चाहिन्छ? तुरुन्तै आफ्नो ऋण स्थानान्तरण दस्तावेज संग अगाडी बढन adams.credi@gmail.com: हामी तपाईं रुचि हो भने यो इमेल मा हामीलाई सम्पर्क, 3% ब्याज दर मा ऋण दिन

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