वक्त हैं संहार का

कल तक तो थी अबला
अब दुष्टो पर बला बनूगी ...
आँखों में तेज़ भर
बाज़ुओ में दम धर
हौसलों को बुलंद कर
रण भूमि पर उतरुगी .....
अब जशन नहीं मानेगा
मेरी हार का .......
क्योकि वक्त हैं संहार का ....
उतार फैकूगी
उन धर्म ग्रन्थो का बोझ
जो रोकता हैं मुझे
टोकता हैं मुझे
कुछ कहने से
कुछ करने से
रोती रही अगर तो ये दुनिया और रुलाएगी
डरी जो एक पल मैं इनसे अगर
पूरी जिन्दगी ये हम पर हुकूमत चलाएगी
इंतज़ार नहीं करुगी किसी के वार का
क्योकि वक्त हैं संहार का ...
अब राखी पर
निर्भर नहीं
आत्मनिर्भर बनूगी .....
शास्त्रों को त्याग कर
शस्त्रों का ज्ञान कर
नारी की एक नयी परिभाषा बनूगी
जिसमे हो .....
स्वर सिंघनी सा
बल गजनी सा
कोमल संग कठोर हो
ममता संग स्वार्थी हो
जो लड़ सके अपने लिए
ऐसी ही वीर बनूगी ....
आखिर प्रश्न हैं नारी के मान का सम्मान का
क्योकि वक्त हैं संहार का ...
हमारी एक आवाज़
हमारा एक विचार
नारी को उसका अधिकार दिलाएगा
(अर्चना चतुर्वेदी )
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